हर शय को इंतिहा है यक़ीं है कि वस्ल हो
अर्सा बहुत खिंचा है मिरी इंतिज़ार का
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नाकामी-ए-विसाल का पैग़ाम है मुझे
पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
शर्म भी इक तरह की चोरी है
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा
है भी और फिर नज़र नहीं आती
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना