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न मैं समझा न आप आए कहीं से - अनवर देहलवी कविता - Darsaal

न मैं समझा न आप आए कहीं से

न मैं समझा न आप आए कहीं से

पसीना पोछिए अपनी जबीं से

टपकता है पसीना उस जबीं से

सितारे झड़ते हैं माह-ए-मुबीं से

चली आती है होंटों पर शिकायत

नदामत टपकी पड़ती है जबीं से

मैं उस बरहम-मिज़ाजी के तसद्दुक़

उलझते हैं वो ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं से

बसर करता रहा हूँ ज़िंदगानी

ता-तेग़ उस निगाह-ए-शर्मगीं से

ये किस नक़्श-ए-क़दम पर जिबह-सा हूँ

कि सर उठता नहीं अपना ज़मीं से

तुम्हें हम-ख़्वाब-दुश्मन देखता हूँ

उठा पर्दा ये चाक-ए-आस्तीं से

जहाँ मदफ़ून हैं तेरे कुश्ता-ए-नार

यक़ीं है हश्र उठेगा वहीं से

नहीं कू-ए-अदू में नक़्श-ए-पा तक

मगर वो उड़ के चलते हैं ज़मीं से

जुनूँ में इस ग़ज़ब की ख़ाक उड़ाई

बनाया आसमाँ हम ने ज़मीं से

गरेबाँ-गीर है यहाँ शौक़-ए-मुर्दन

वो ख़ंजर तो निकालें आस्तीं से

कहाँ की दिल-लगी कैसी मोहब्बत

मुझे इक लाग है जान-ए-हज़ीं से

दो रंगी एक जा उन से न छोटी

मुझे मारा अदा-ए-महर-ओ-कीं से

उलट देगा जहाँ बिस्मिल तड़प कर

सँभालो दस्त-ओ-पा-ए-नाज़नीं से

बजाए शम्अ' जुलते हैं सरापा

तुम्हारी बज़्म रौशन है हमीं से

ग़ज़ब ही बे-जिगर था बिस्मिल-ए-शौक़

कि जा लिपटा तिरे फ़ितराक-ए-ज़ीं से

वो कुछ बे-ताबियाँ बिगड़े से तेवर

लड़ाई में मज़ा है उस हसीं से

उधर मारा इधर मुझ को जिलाया

लब-ए-जाँ-बख़्श व चश्म-ए-ख़शमगीं से

न निकली उस के मुँह से आह तक भी

जिसे मारा निगाह-ए-शर्मगीं से

न दिल क़ाबू में और दिल में न अब सब्र

खींचें किस बल पे हम उस ख़शमगीं से

उठाने एक क़यामत बैठे हैं वो

ग़ज़ब फ़ित्ने लगा लाए कमीं से

कमी की दस्त-ए-क़ातिल ने तो बिस्मिल

बढ़ाए दस्त-ओ-पा-ए-नाज़नीं से

उधर लाओ ज़रा दस्त-ए-हिनाई

पकड़ दें चोर दिल का हम यहीं से

अगर सच है हसीनों में तिलों

तो है उम्मीद वस्ल उन की नहीं से

ब-रंग-ए-बू निकलते हैं करिश्मे

तुम्हारी नर्गिस-ए-सहर-आफ़रीं से

जहन्नम है मुझे गुलज़ार-ए-जन्नत

जुदा हूँ एक इज़ार-ए-आतिशीं से

ये पर्दे हैं बा-शौक़-ए-दीदार

ये सारी लन-तरानी है हमीं से

जहाँ को जल्वा-गाह-ए-यार देखें

जो नज़ारा करें चश्म-ए-यक़ीं से

मुझे क्या ग़म कि बार उल्फ़त-ए-ग़ैर

न उट्ठेगा कभी उस नाज़नीं से

सनानें चल रही हैं जान-ओ-दिल पर

निगाहें लड़ रही हैं इक हसीं से

वहाँ आशिक़-कुशी है ऐन-ईमाँ

उन्हें क्या बहस 'अनवर' कुफ़्र-ओ-दीं से

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