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हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का - अनवर देहलवी कविता - Darsaal

हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का

हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का

है मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर में काट तेग़-ए-यार का

शोर है ग़ुल है जहाँ में मुर्दन-ए-दुश्वार का

एक चलता वार है तेग़-ए-निगाह-ए-यार का

नग़्मा दिलकश है दुश्मन अंदलीब-ए-ज़ार का

है क़फ़स में बंद होना खोलना मिंक़ार का

मस्त कुछ ऐसा हूँ चश्म-ए-नीम-ए-मस्त-ए-यार का

ज़र्फ़ ख़ाली जानता हूँ साग़र-ए-सरशार का

क्या कहूँ क्या हाल है मुझ ना-तवान-ओ-ज़ार का

हूँ निगाह-ए-वापसीं अपनी दिल-ए-बीमार का

आसमाँ फिरता है हस्ब-ए-मद्दआ-ए-मुद्दआ

राह पर लाना ग़ज़ब है ऐसे कज-रफ़्तार का

बल बे-बद-ख़ूई मिज़ाज-ए-यार में सौ बल पड़े

एक बल निकला जो तार-ए-गेसू-ए-ख़म-दार का

दस्त-ए-साक़ी पर लगाए आँख रहता है मुदाम

जाम-ए-मय है दीदा-ए-हसरत किसी मय-ख़्वार का

किस क़दर बश्शाश है असरार से ख़ाली नहीं

रंग मेरा उड़ गया मुँह देख कर सोफ़ार का

मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ

बाल बाँधा चोर हूँ हर तार-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार का

कोई इक गर्दिश तो हो ऐसी भी हाँ ऐ चश्म-ए-यार

शैख़ पूछे मुझ से रस्ता ख़ाना-ए-ख़ुम्मार का

वाह रे क़िस्मत कि वो मेरे मुक़द्दर में पड़ा

आह ने जो बल निकाला चर्ख़-ए-कज-रफ़्तार का

ले चलो वाइज़ को हाथों-हाथ उठाए मय-कशो

पासबाँ चल कर बना दो ख़ाना-ए-ख़ुम्मार का

जान सुनने वालों की वाइज़ लबों पर आ गई

वाह क्या कहना है हज़रत आप की गुफ़्तार का

है जो उफ़्तादों से कुछ नफ़रत तो नफ़रत ही सही

क्यूँ ज़मीं पर गिर पड़ा साया तेरी दीवार का

शक्ल-ए-मर्हम देख कर डरता है मेरा ज़ख़्म-ए-दिल

खोल कर आँख अपनी देखा है जो मुँह सोफ़ार का

नाला मेरे लब पे आता है जो सौ सौ नाज़ से

कोई परतव ले उड़ा शायद तिरी रफ़्तार का

ये तो ज़ाहिर है कि वस्ल उन का कहाँ और हम कहाँ

लेकिन इस पैग़ाम में कुछ लुत्फ़ है तकरार का

दिल को ले जा मुझ से या तो आप ले या बाँट दे

पर ये हिस्सा है तेरी गेसू के इक इक तार का

अल-अमान उस बुर्रिश-ए-तेग़-ए-नज़र से अल-अमान

मानती है बर्क़ भी लोहा तेरी तलवार का

हाथ सँभला रखियो ऐ मश्शाता-ए-जादू-तराज़

इक जहान-ए-दिल है बस्ता तुर्रा-ए-तर्रार का

हूँ तो दीवाना वले हुश्यारी-ए-मतलब तो देख

सर भी फोड़ा ढूँड कर पत्थर तिरी दीवार का

कुछ इधर से अर्ज़ मतलब और उधर से कुछ नहीं

इक जुदागाना मज़ा है वस्ल में तकरार का

कितना गुस्ताख़ी से खींचा है तुझे आग़ोश में

मैं गले का हार हूँ तेरे गले के हार का

क्यूँ नहीं गिरता मिरे आफ़त-ज़दों पर हाए हाए

आसमाँ भी है मगर साया तिरी दीवार का

छू गई काफ़िर हवा किस की निगाह-ए-गर्म से

फूल कुम्लाया हुआ है कुछ गुल-ए-रुख़्सार का

मिलती है आख़ीर को कुछ कैफियत-ए-सोज़-ओ-साज़

साइक़ा हिस्सा है पहला तालिब-ए-दीदार का

एक जल्वा पर चमक उठती है सब अक़्लीम-ए-इश्क़

कौन आलम है हमारे दीदा-ए-बेदार का

आसमाँ रखता है आँखें मेहर-ओ-मह से उस से पूछ

कौन आलम है हमारे दीदा-ए-बेदार का

हुस्न में ख़ुद-रफ़्तगी है तो नहीं माने' हिजाब

बू-ए-गुल को फाँदना क्या बाग़ की दीवार का

वो ही अपनी चाल है कोई मरे कोई जिए

ले उड़े सारा चलन तुम चर्ख़-ए-कज-रफ़्तार का

नाख़ुन-ए-शमशीर-ए-क़ातिल को दुआ देते हैं हम

उक़्दा खोला ख़ूब 'अनवर' मुर्दन-ए-दुश्वार का

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