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अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब - अनवर देहलवी कविता - Darsaal

अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब

अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब

चश्म-ए-बीना से अगर देखो तो घर का घर ख़राब

गिर्या बे-तासीर ओ फ़रियाद-ए-दिल-ए-मुज़्तरिब ख़राब

कार-ए-इश्क़-ओ-आशिक़ी नाक़िस तमाम अक्सर ख़राब

इक हमारा नाम जो पहुँचे न तेरी बज़्म तक

इक हमारी ख़ाक है जो फिरती है दर दर ख़राब

है अदब से नुत्क़ बंद अब क्या बयाँ हो मुद्दआ'

पहले ही यहाँ हो चुका गुफ़्तार का दफ़्तर ख़राब

दिल ख़राब और सब हवा-ओ-हिर्स-ए-दिल बेकार है

है फ़ज़ा-ए-दहर में हाल-ए-बुत-ओ-बुत-गर ख़राब

जान ही जाती है गुफ़्तार-ए-शकर-आलूद पर

बुल-हवस से निय्यत-ए-आशिक़ है कुछ बढ़ कर ख़राब

शब-ए-अदू के साथ दिन को मुझ से छुपते फिरते हो

अल-ग़रज़ फिरते हो यूँ ही रात-भर दिन-भर ख़राब

दिल ख़राबात-ए-मुग़ाँ से हम उठा सकते नहीं

हो गए इस ख़ाक-दाँ में चार दिन रह कर ख़राब

फोड़ना सर का ही आ ठहरा तो लाखों संग हैं

कीजिए क्यूँ आस्तान-ए-यार का पत्थर ख़राब

जो मुक़ाबिल में बला आए वो मौजूद उस में है

दिल हुआ अपना सफ़ा से आईना बन कर ख़राब

इक सनम के हाथ बिक जाता न फिरता दर-ब-दर

बुत-फ़रोशीं से हुआ है किस क़दर आज़र ख़राब

लुत्फ़-ए-साक़ी आम था पर वा-ए-बख़्त अंदलीब

जाम-ए-गिल बेकार निकला साग़र-ए-अबहर ख़राब

मेरे दिल में एक दम आते नहीं मिस्ल-ए-मुराद

हो गए अग़्यार की आँखों में तुम रह कर ख़राब

तुम किसी वा'दा से फिर जाओ कि हो जाऊँ तमाम

हो अगर फिरने में मेरे हल्क़ पर ख़ंजर ख़राब

मुन्हरिफ़ हम देखते हैं कुछ निगाह-ए-तेज़ तेज़

किस रग-ए-जाँ से हुआ है ये सर-ए-नश्तर ख़राब

आरज़ू-ए-क़त्ल बर आई तो क्या बर आई ख़ाक

कुछ यहाँ क़िस्मत बुरी कुछ वहाँ दम-ए-ख़ंजर ख़राब

यूँ ख़राबात-ए-मुग़ाँ भी है ख़राब-ए-रोज़गार

लेकिन उस से भी है कुछ तेरा दिल-ए-'अनवर' ख़राब

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