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आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ - अनवर देहलवी कविता - Darsaal

आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ

आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ

मतलब अदा वो करते हैं और किस अदा के साथ

शोख़ी निगह के साथ तग़ाफ़ुल जफ़ा के साथ

उश्शाक़ पर हुजूम-ए-बला है बला के साथ

आख़िर हुआ न ज़ब्त शब-ए-वस्ल मुद्दई

नाला निकल गया मिरी लब से दुआ के साथ

तेरे सितम से मुझ को मिला मंसब-ए-कलीम

इक वजह-ए-गुफ़्तगु निकल आई ख़ुदा के साथ

तेरा हिजाब उठते ही आया वो ना-गहाँ

दुश्मन के पावँ खुल गए बंद-ए-क़बा के साथ

में क्या कि दुश्मनों की भी क़िस्मत उलट गई

तिरछी अदाएँ और तेरी बाँकी अदा के साथ

राह-ए-तलब में शौक़ की मंज़ूर है नुमूद

मिटते क़दम क़दम पे चले रहनुमा के साथ

यारब ग़लत हो फ़हम-ए-कज-अंदेश का गुमाँ

कुछ कह रहा है इन से अदू इल्तिजा के साथ

देते नहीं किसी को पता अपने हाल का

बेगाना बन के चलते हैं हर आश्ना के साथ

मय बे-तलब मिली तो हुई यार की तलब

बंदों के नाज़ भी हैं निराले ख़ुदा के साथ

जोश-ए-क़लक़ में देखिए क्या माँगता हूँ मैं

यारों के दम निकलते हैं मेरी दुआ के साथ

घर से मुझे निकालते रहिए पर इस तरह

गह मुद्दई के साथ गहे मुद्दआ के साथ

क्यूँ शौक़ में गिराइए साथ अपने शान-ए-इश्क़

अग़माज़ भी ज़रूर है कुछ इल्तिजा के साथ

कहता हूँ ये नसीब न दुश्मन को हो फ़िराक़

आ मैं वो कहते जाते हैं मेरी दुआ के साथ

लैला का नाम ज़िंदा है अब तक जहाँ में

तुम भी निबाह दो किसी अहल-ए-वफ़ा के साथ

फिरते ही उस की आँख के वाबस्ता-तर हवा

मैं दिल के साथ दिल निगह-ए-फ़ित्ना-ज़ा के साथ

हम आलम-ए-ख़याल में कुछ भी न ख़ुश हुए

है रश्क-ए-ग़ैर याद-ए-लब-ए-जाँ-फ़ज़ा के साथ

अब तो बड़ा ख़याल तेरी रंजिशों का है

महशर में देख लेंगे ख़ुदा की ख़ुदा के साथ

कहता है डर के हाथ वफ़ा से उठा लिया

दुश्मन की बात बन गई मेरी दुआ के साथ

आता है बू-ए-दोस्त में काफ़िर बसा हुआ

क़ासिद भी इक रक़ीब है अपना सबा के साथ

क्या ढूँढते हो दहर में 'अनवर' जमाल-ए-दोस्त

चंदे फिरो चलो किसी मर्द-ए-ख़ुदा के साथ

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