खिला है फूल बहुत रोज़ में मुक़द्दर का
खिला है फूल बहुत रोज़ में मुक़द्दर का
बस अब न बंद हो दरवाज़ा तेरे मंदर का
तमाम शहर है हंगामा-ए-नशात में गुम
मगर ये कर्ब ये सन्नाटा मेरे अंदर का
कभी न खुल के हँसा हूँ न रोया जी भर के
रखा है मैं ने हमेशा क़दम बराबर का
सदा किसी की हो आता है अपने आप से ख़ौफ़
वो अजनबी हूँ कि घर का रहा न बाहर का
गुरेज़ है उसे मेरी गली से यूँ जैसे
यहाँ जो आया तो हो जाएगा वो पत्थर का
ये गाहे गाहे का मिलना भी कोई मिलना है
जो हो सके तो पता दीजिए कभी घर का
कभी कभी का हो क़िस्सा तो कोई दुख भी सुने
उठाए बोझ भला कौन ज़िंदगी भर का
असीर-ए-दाम-ए-फ़रेब-ए-ज़बाँ हुआ आख़िर
न ए'तिबार जिसे आया दीदा-ए-तर का
ग़म-ए-ज़माना है वो तेग़-ए-तिश्ना-काम 'अंजुम'
उड़े हैं पाँव अगर वार बच गया सर का
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