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धूप हो गए साए जल गए शजर जैसे - अनवर अंजुम कविता - Darsaal

धूप हो गए साए जल गए शजर जैसे

धूप हो गए साए जल गए शजर जैसे

जम गई फ़ज़ाओं में अब के दोपहर जैसे

ज़ीस्त के ख़राबे में इक सियाह घर दिल का

और दिल में याद उस की रौशनी का दर जैसे

कैसे कैसे हंगामा घेरे रखते थे दिन रात

लग गई निगाहों को अपनी ही नज़र जैसे

या तो आने से पहले घर का पूछते अहवाल

आ गए तो अब कीजे हो गुज़र-बसर जैसे

ऐसे तकता रहता हूँ उस गली के लोगों को

ले के आएगा कोई मेरी भी ख़बर जैसे

मुद्दतों मैं गुज़रा था उस के शहर से लेकिन

सब मकान लगते थे अब भी उस के घर जैसे

नक़्श-गाह-ए-हस्ती में देखी अपनी भी तस्वीर

एक काग़ज़-ए-सादा आँसुओं से तर जैसे

चाहती है अब वहशत दूर तक बयाबानी

काटने को आते हैं घर के बाम-ओ-दर जैसे

मुझ से क्या सहे जाते उन की बज़्म के आदाब

अश्क माँगते थे वो अश्क भी गुहर जैसे

मैं भी कितना सादा हूँ रहगुज़र पे बैठा हूँ

रोक लेगा वो पाँव मुझ को देख कर जैसे

मेरी ख़्वाहिशें 'अंजुम' जैसे नाचती परियाँ

मेरा सारा मुस्तक़बिल ख़्वाब का नगर जैसे

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