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चुप बैठा में अक्सर सोचता रहता हूँ - अनवर अंजुम कविता - Darsaal

चुप बैठा में अक्सर सोचता रहता हूँ

चुप बैठा में अक्सर सोचता रहता हूँ

आख़िर मैं क्यूँ इतना तन्हा तन्हा हूँ

पहरों जिन की झील में खोया रहता था

उन आँखों की याद में डूबा रहता हूँ

तुम जो बातें भूल चुके हो मुद्दत से

मैं तो उन में अब भी उलझा रहता हूँ

तुम बदलो तो बदलो अपनी राह मगर

मैं तो एक डगर पर चलता रहता हूँ

सादा-पन कुछ नेकी ही का नाम नहीं

देखने में तो मैं भी सीधा-सादा हूँ

तेरे घर भी पहुँचा है ये शोर कभी

या मैं ही अंजान सदाएँ सुनता हूँ

घर की दीवारों में यूँ दिल तंग न हो

ढूँढ मुझे मैं इस घर का दरवाज़ा हूँ

जिस ने प्यार से देखा उस के साथ हुआ

सच पूछो तो मैं भी अब तक बच्चा हूँ

'अंजुम' मैं क्यूँ दुनिया पर इल्ज़ाम रखूँ

आँखें हैं तो फिर क्यूँ ठोकर खाता हूँ

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