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वो बुत बिना निगाह जमाए खड़ा रहा - अनवर अंजुम कविता - Darsaal

वो बुत बिना निगाह जमाए खड़ा रहा

वो बुत बिना निगाह जमाए खड़ा रहा

मैं आँख बंद कर के उसे पूजता रहा

ख़ुश-फ़हमियों का आज भरम खुल गया तो क्या

इक मोड़ पर तो उस का मिरा सामना रहा

तुम को तो एक उम्र हुई है जुदा हुए

हैराँ हूँ रात-भर मैं किसे ढूँढता रहा

इक इक दरीचा बंद था फिर भी ये डर रहा

छुप-छुप के जैसे कोई हमें झाँकता रहा

उस की निगाह फ़ित्ना-अदा तो बहाना थी

ख़ुद मेरा दिल भी मेरा लहू चूसता रहा

'अंजुम' किसे ख़बर कि कोई महव-ए-इंतिज़ार

कल जलती दोपहर में अकेला खड़ा रहा

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