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नए दिनों के नए सहीफ़ों में ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा नहीं है - अनवर अलीमी कविता - Darsaal

नए दिनों के नए सहीफ़ों में ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा नहीं है

नए दिनों के नए सहीफ़ों में ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा नहीं है

मोहब्बतों की जसारतों की सज़ा नहीं है जज़ा नहीं है

निगाह के शोख़-पन को बेगानगी का आसेब डस गया है

मुग़एरत का फ़ुसूँ-ज़दा दिल जुनूँ के शायाँ रहा नहीं है

कोई भी सजनी किसी भी साजन की मुंतज़िर है न मुज़्तरिब है

तमाम बाम और दर बुझे हैं कहीं भी रौशन दिया नहीं है

हयात के पुर-जमाल मंज़र पे कोई नुत्क़ और क़लम न महका

नया क़लमकार नुदरत-ए-फ़न की ख़ुशबुओं पर फ़िदा नहीं है

यहीं पे कल हम से तुम से यारो मुअद्दतों को जनम मिला था

दयार-ए-याराँ वही है लेकिन कोई वफ़ा-आश्ना नहीं है

विसाल-घड़ियों फ़िराक़-लम्हों के ग़म, तरब सब फ़सानचे हैं

मिलन का और ना-मिलन का सुख दुख दिलों की तह में छुपा नहीं है

मैं दैर ओ काबा में ढूँड आया तो मैं ने पाया ये इल्म ओ इरफ़ाँ

मैं एक इंसाँ हूँ मेरी हस्ती से कोई हस्ती वरा नहीं है

वो चश्म-ए-बीना की मंज़िलें थीं ये कोर-चश्मी के मरहले हैं

पुरानी पहचान मर गई है किसी से कोई मिला नहीं है

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