फ़ज़ा-ए-दिल में घनी तीरगी सी लगती है
फ़ज़ा-ए-दिल में घनी तीरगी सी लगती है
कहीं कहीं पे ज़रा रौशनी सी लगती है
बड़ा अजीब मोहब्बत का दौर होता है
कहीं पे मौत कहीं ज़िंदगी सी लगती है
चमकने लगती है हर चीज़ मेरे कमरे की
तुम्हारी याद कोई फुलझड़ी सी लगती है
मैं सोचता हूँ कहूँ कैसे बेवफ़ा उस को
मुझे तो अपने ही अंदर कमी सी लगती है
तुम्हारी याद को जब भी गले लगाता हूँ
मिरे बदन में कोई सनसनी सी लगती है
कोई बहुत बड़ा तूफ़ान आने वाला है
जहाँ भी देखो हवा चुप खड़ी सी लगती है
तुम्हारी सोच में मैं रंग अपने भर न सका
ये सोचता हूँ तो शर्मिंदगी सी लगती है
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