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विसाल की तीसरी सम्त - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

विसाल की तीसरी सम्त

माज़रत चाहता हूँ दोस्त

मैं अब इंतिज़ार नहीं करता

बल्कि ख़ुद चल पड़ता हूँ अपनी तरफ़

एक पोशीदा चाप के तआक़ुब में

ख़ुद से बाहर निकलता हूँ

और अपने ही जैसे किसी हुजूम का हिस्सा बन कर

अपने वजूद पर इक्तिफ़ा करता हूँ

अपनी अमीक़ रौशनी से नया जन्म लेते हुए

ख़ुद की बुनत में बेजोड़ होने की काविश

राएगाँ नहीं जाती

सुनो!

समय के भेद-भाव में अपना तख़्मीना लगाते हुए

ज़ात की जमा-पूँजी में से

मैं तुम्हें अपनी हिस्सियात से मुस्तरद नहीं करता

बिसात भर सब्र और एक मुट्ठी विसाल के एवज़

मैं तुम्हें कशीद करता हूँ अपने अतराफ़ से

और गुंजाइश पैदा करता हूँ तुम्हारी मेज़बानी के लिए

किसी और जिहत से अपने-आप में

लेकिन माज़रत

मैं इंतिज़ार नहीं कर सकता

अपनी रगों में बहते हुए उस दुख के पिघलने का

जो अपने बहाव में मेरी तवज्जोह बहा ले जा सकता है

अपने साथ

मैं तय-शुदा गुज़रगाहों का मुसाफ़िर नहीं

मुझे तो हर इम्कान से गुज़र कर आना है तुम्हारी सम्त

और हाँ...

मैं तो अपना भी इंतिज़ार नहीं करता हूँ अब!!!

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