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तन्हाई का सफ़रनामा - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

तन्हाई का सफ़रनामा

शाम होते ही घर मुझ से छोटा पड़ जाता है

मैं रस्तों की बद-दुआ पर निकला हूँ

जहाँ आँखों को चेहरे कमाने से फ़ुर्सत नहीं

लगता है तन्हाई मुझ से ऊब गई है

साँसें मैली हो रही थीं

मिट्टी ने मुझे फूल बना दिया

ख़ुश्बू हवा की दोस्त हो जाए

तो बे-रंगे लोग रंग रंग की बातें

करते ही हैं

(वो ख़्वाह कितने भी छोटे हो जाएँ

अच्छा मौसम इन पर कभी पूरा नहीं आता)

बद-ज़बानों को मालूम नहीं

उर्यानी सिर्फ़ आँखों पर जचती है

मैं ज़मीन पर गिरा हुआ चाँद हूँ

क़दमों से पहले दीवार मुझे फलाँग रही है

मुंडेर पर धरा चराग़ मुझ से ज़्यादा रौशन है!

मैं भी तो मैं हूँ

एक गुनाह के एवज़ अपना सारी नेकियाँ

ख़र्च कर बैठता हूँ

ख़ामोशी के ख़ाली बदन में

कोई धुन मुझे गुनगुनाती रहती है

उदासी और कहाँ रहे

काश ख़ुदा मुझे देख रहा हो!

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