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सारा शगुफ़्ता - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

सारा शगुफ़्ता

कभी ख़ुदा से मिल कर

इंसान से मिलना

ख़ुदा का मक्र है इंसान!

मेरे तो सारे सवाब

उँगलियों की पोरों से झड़ गए

और गुनाह हैं कि सीने में धड़कते चले जाते हैं

थोड़ा सब्र चखो!

लज़्ज़त पकी पकाई रोटी नहीं

जिसे चिंगीर में रख कर तुम्हें परोस दूँ!

तुम तो सरमा के लिहाफ़ में भी ठंडे पड़ रहे हो

दाँतों को पसीना तो आने दो

कि ज़बान बदन का नमक चुरा सके

मिट्टी से प्यास नहीं बुझी

मुझे अभी और खोदो

खोदते रहो कि पानी का ज़ाइक़ा अभी

बहुत पाताल में है!

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