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ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ

ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ

अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ

मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा कि ये मैं हूँ

अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ

गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया

क़दीम ओ कोहना रिवायात में पड़ा हुआ हूँ

बचाओ का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में

मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ

मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था

सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ

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