उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
रात बिस्तर पे मैं सोता नहीं मर जाता हूँ
अक्सर औक़ात भरे शहर के सन्नाटे में
इस क़दर ज़ोर से हँसता हूँ कि डर जाता हूँ
मुझ से पूछे तो सही आईना-ख़ाना मेरा
ख़ाल-ओ-ख़द ले के मैं हमराह किधर जाता हूँ
दिल ठहर जाता है भूली हुई मंज़िल में कहीं
मैं किसी दूसरे रस्ते से गुज़र जाता हूँ
सहमा रहता हूँ बहुत हल्क़ा-ए-अहबाब में मैं
चार दीवार में आते ही बिखर जाता हूँ
मेरे आने की ख़बर सिर्फ़ दिया रखता है
मैं हवाओं की तरह हो के गुज़र जाता हूँ
मैं ने जो अपने ख़िलाफ़ आप गवाही दी है
वो तिरे हक़ में नहीं है तो मुकर जाता हूँ
(1546) Peoples Rate This