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उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ

उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ

रात बिस्तर पे मैं सोता नहीं मर जाता हूँ

अक्सर औक़ात भरे शहर के सन्नाटे में

इस क़दर ज़ोर से हँसता हूँ कि डर जाता हूँ

मुझ से पूछे तो सही आईना-ख़ाना मेरा

ख़ाल-ओ-ख़द ले के मैं हमराह किधर जाता हूँ

दिल ठहर जाता है भूली हुई मंज़िल में कहीं

मैं किसी दूसरे रस्ते से गुज़र जाता हूँ

सहमा रहता हूँ बहुत हल्क़ा-ए-अहबाब में मैं

चार दीवार में आते ही बिखर जाता हूँ

मेरे आने की ख़बर सिर्फ़ दिया रखता है

मैं हवाओं की तरह हो के गुज़र जाता हूँ

मैं ने जो अपने ख़िलाफ़ आप गवाही दी है

वो तिरे हक़ में नहीं है तो मुकर जाता हूँ

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