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सुल्ह के बअ'द मोहब्बत नहीं कर सकता मैं - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

सुल्ह के बअ'द मोहब्बत नहीं कर सकता मैं

सुल्ह के बअ'द मोहब्बत नहीं कर सकता मैं

मुख़्तसर ये कि वज़ाहत नहीं कर सकता मैं

दिल तिरे हिज्र में सरशार हुआ फिरता है

अब किसी दश्त में वहशत नहीं कर सकता मैं

मेरे चेहरे पे हैं आँखें मिरे सीने में है दिल

इस लिए तेरी हिफ़ाज़त नहीं कर सकता मैं

हर तरफ़ तू नज़र आता है जिधर जाता हूँ

तेरे इम्कान से हिजरत नहीं कर सकता मैं

इतना तरसाया गया मुझ को मोहब्बत से कि अब

इक मोहब्बत पे क़नाअ'त नहीं कर सकता मैं

अपना ईमाँ भी तुझे सौंप दिया है 'अंजुम'

इस से बढ़ कर तो सख़ावत नहीं कर सकता मैं

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