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मैं ख़ुद को मिस्मार कर के मलबा बना रहा हूँ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

मैं ख़ुद को मिस्मार कर के मलबा बना रहा हूँ

मैं ख़ुद को मिस्मार कर के मलबा बना रहा हूँ

यही बना सकता हूँ लिहाज़ा बना रहा हूँ

किसी के सीने में भर रहा हूँ मैं अपनी साँसें

किसी के कतबे को अपना कतबा बना रहा हूँ

बहुत भली लगती है उसे भी मिरी उदासी

ख़ुशी ख़ुशी ख़ुद को दिल-गिरफ़्ता बना रहा हूँ

हुजूम को मेरे क़हक़हों की ख़बर नहीं है

बना हुआ हूँ कि मैं तमाशा बना रहा हूँ

हर एक चेहरे पे ख़ाल-ओ-ख़द की नुमाइशें हैं

मैं ख़ाल-ओ-ख़द के बग़ैर चेहरा बना रहा हूँ

खुली हुई है जो कोई आसान राह मुझ पर

मैं उस से हट के इक और रस्ता बना रहा हूँ

फ़लक से ऊपर भी एक छत है ज़मीन ऐसी

फ़लक के उस पार एक ज़ीना बना रहा हूँ

मिरी तवज्जोह बस एक नुक़्ते पे मुर्तकिज़ है

मैं अपनी क़ुव्वत को एक ज़र्रा बना रहा हूँ

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