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मैं जब वजूद से होते हुए गुज़रता हूँ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

मैं जब वजूद से होते हुए गुज़रता हूँ

मैं जब वजूद से होते हुए गुज़रता हूँ

ख़ुद अपने-आप पे रोते हुए गुज़रता हूँ

इसी लिए तो मुझे तू दिखाई देता नहीं

मैं तेरे ख़्वाब से सोते हुए गुज़रता हूँ

गिला-गुज़ार दिलों से मिरा गुज़र है मियाँ

मैं मोतियों को पिरोते हुए गुज़रता हूँ

वही ज़माना मिरी राह रोक लेता है

मैं जिस ज़माने से होते हुए गुज़रता हूँ

तिरी गली से भी हो आऊँ और पता न चले

जबीं के दाग़ को धोते हुए गुज़रता हूँ

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