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खींचा हुआ है गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने मुझे - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

खींचा हुआ है गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने मुझे

खींचा हुआ है गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने मुझे

ख़ुद से नहीं उतरने दिया चाक ने मुझे

मौज-ए-हवा में तैरता फिरता था मैं कहीं

फिर यूँ हुआ कि खींच लिया ख़ाक ने मुझे

मैं रौशनी में आ के पशेमाँ बहुत हुआ

उर्यां किया है इश्क़ की पोशाक ने मुझे

आईने की तरह था मैं शफ़्फ़ाफ़ ओ आब-दार

गदला दिया है चशम-ए-हवस-नाक ने मुझे

ख़ुश्बू सा मैं ग़िलाफ़ के अंदर मुक़ीम था

और खो दिया है सीना-ए-सद-चाक ने मुझे

अपने सिवा जहाँ में कोई सूझता नहीं

ला फेंका है कहाँ मिरे इदराक ने मुझे

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