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इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया

ये सफ़र भी मिरा राएगाँ रह गया

हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़

और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया

राख पोरों से झड़ती गई उम्र की

साँस की नालियों में धुआँ रह गया

अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ

बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया

जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-वरो

मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया

मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में

मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया

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