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हवा का तख़्त बिछाता हूँ रक़्स करता हूँ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

हवा का तख़्त बिछाता हूँ रक़्स करता हूँ

हवा का तख़्त बिछाता हूँ रक़्स करता हूँ

बदन चराग़ बनाता हूँ रक़्स करता हूँ

मैं बैठ जाता हूँ तकिया लगा के बातिन में

ख़ुद अपनी बज़्म सजाता हूँ रक़्स करता हूँ

ज़मीन हाँपने लगती है इक जगह रुक कर

मैं उस का हाथ बटाता हूँ रक़्स करता हूँ

मिरा सुरूर मुझे खींचता है अपनी तरफ़

मैं अपने-आप में आता हूँ रक़्स करता हूँ

मैं जानता हूँ मुझे कैसे शांत होना है

कहो तो हो के दिखाता हूँ रक़्स करता हूँ

मिरी मिसाल धुआँ है बुझे चराग़ों का

जब अपना सोग मनाता हूँ रक़्स करता हूँ

अजीब लहर सी 'अंजुम' मिरे ख़मीर में है

जिसे वजूद में लाता हूँ रक़्स करता हूँ

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