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इक दूजे को देर से समझा देर से यारी की - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

इक दूजे को देर से समझा देर से यारी की

इक दूजे को देर से समझा देर से यारी की

हम दोनों ने एक मोहब्बत बारी बारी की

ख़ुद पर हँसने वालों में हम ख़ुद भी शामिल थे

हम ने भी जी भर कर अपनी दिल-आज़ारी की

इक आँसू ने धो डाली है दिल की सारी मैल

एक दिए ने काट के रख दी गहरी तारीकी

दिल ने ख़ुद इसरार क्या इक मुमकिना हिजरत पर

हम ने इस मजबूरी में भी ख़ुद-मुख़तारी की

चौदा बरस के हिज्र को इम-शब रुख़्सत करना है

सारा दिन सो सो कर जागने की तय्यारी की

हम भी इसी दुनिया के बासी थे सो हम ने भी

दुनिया वालों से थोड़ी सी दुनिया-दारी की

'अंजुम' हम उश्शाक़ में ऊँचा दर्जा रखते हैं

बे-शक इश्क़ ने ऐसी कोई सनद न जारी की

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