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चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ - अंजुम सलीमी कविता - Darsaal

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ

मैं ख़ाली हाथ ख़ज़ानों की सैर करता हुआ

पुकारता है कोई डूबता हुआ साया

लरज़ते आईना-ख़ानों की सैर करता हुआ

बहुत उदास लगा आज ज़र्द-रू महताब

गली के बंद मकानों की सैर करता हुआ

मैं ख़ुद को अपनी हथेली पे ले के फिरता रहा

ख़तर के सुर्ख़ निशानों की सैर करता हुआ

कलाम कैसा चका-चौंद हो गया मैं तो

क़दीम लहजों ज़बानों की सैर करता हुआ

ज़ियादा दूर नहीं हूँ तिरे ज़माने से

मैं आ मिलूँगा ज़मानों की सैर करता हुआ

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