क़लंदरी है कि रखता है दिल ग़नी 'अंजुम'
कोई दुकाँ न कोई कार-ख़ाना रखता है
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आएगी हम को रास न यक-रंगी-ए-ख़ला
हम से बात में पेच न डाल
दिन हो कि रात, कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़
किस की जबीं पे हैं ये सितारे अरक़ अरक़
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
दुखी दिलों के लिए ताज़ियाना रखता है
और कुछ दिन ख़राब हो लीजे
रहे ज़रा दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता पर नज़र 'अंजुम'
है जो तासीर सी फ़ुग़ाँ में अभी
जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए
हर चंद उन्हें अहद फ़रामोश न होगा
पाप करो जी खोल कर धब्बों की क्या सोच