और कुछ दिन ख़राब हो लीजे
सूद अपना है इस ज़ियाँ में अभी
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दिन हो कि रात, कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़
जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए
कुछ अजनबी से लोग थे कुछ अजनबी से हम
दिन हो कि रात कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़
यहाँ तो फिर वही दीवार-ओ-दर निकल आए
पाप करो जी खोल कर धब्बों की क्या सोच
गुज़र रहे हैं गुज़रने वाले
हम से बात में पेच न डाल
दिल से उठता है सुब्ह-ओ-शाम धुआँ
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
है जो तासीर सी फ़ुग़ाँ में अभी
जब भी कोई बात की आँसू ढलके साथ