कुछ अजनबी से लोग थे कुछ अजनबी से हम
कुछ अजनबी से लोग थे कुछ अजनबी से हम
दुनिया में हो न पाए शनासा किसी से हम
देते नहीं सुझाई जो दुनिया के ख़त्त-ओ-ख़ाल
आए हैं तीरगी में मगर रौशनी से हम
याँ तो हर इक क़दम पे ख़लल है हवास का
ऐ ख़िज़्र बाज़ आए तिरी हमरही से हम
देते हैं लोग आज उसे शाएरी का नाम
पढ़ते थे लौह दिल पे कुछ आशुफ़्तगी से हम
रहती है 'अंजुम' एक ज़माने से गुफ़्तुगू
करते नहीं कलाम ब-ज़ाहिर किसी से हम
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