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जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए - अंजुम रूमानी कविता - Darsaal

जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए

जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए

हू का मक़ाम है कोई दीवाना चाहिए

है इस में क़ैद-ए-शहर न वीराना चाहिए

बहर-ए-फ़राग़ तब-ए-फ़क़ीराना चाहिए

गुंजाइश-ए-तसव्वुर-ए-यक-लफ़्ज़ भी नहीं

याँ हर किसी के वास्ते अफ़्साना चाहिए

याँ हर क़दम है महशर-ए-इम्कान-ए-नौ-ब-नौ

याँ हर क़दम पे सज्दा-ए-शुकराना चाहिए

जब तक कि हैं ज़माने में हम से ख़राब लोग

मस्जिद कहीं कहीं कोई मय-ख़ाना चाहिए

मालूम है ख़ुदा को जो हालत दिलों की है

ऐ शैख़ हम फ़क़ीरों पे फ़तवा न चाहिए

रखते हैं 'अंजुम' आप जो औरों के वास्ते

अपने लिए भी तो वही पैमाना चाहिए

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