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बे-हिफ़ाज़त ही मिरा गंज-ए-मआ'नी रह गया - अंजुम नियाज़ी कविता - Darsaal

बे-हिफ़ाज़त ही मिरा गंज-ए-मआ'नी रह गया

बे-हिफ़ाज़त ही मिरा गंज-ए-मआ'नी रह गया

रेत पर लिख कर मैं ख़ुद अपनी कहानी रह गया

चल दिए सब दोस्त मुझ को डूबता ही छोड़ कर

ग़म बटाने के लिए दरिया का पानी रह गया

जब कभी खोली है मैं ने बीते लम्हों की किताब

देर तक पढ़ता मैं तहरीरें पुरानी रह गया

झड़ गए पत्ते मिरे जितने मिरी शाख़ों पे थे

बन के अपनी एक धुँदली सी निशानी रह गया

जम गया है बर्फ़ की सूरत मिरा सारा बदन

दूर मुझ से दूर सूरज आँ-जहानी रह गया

लफ़्ज़ थक कर सो गए काग़ज़ के पहलू में मगर

जागता अंजुम मिरा हुस्न-ए-मआ'नी रह गया

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