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मिरे मज़ार पे आ कर दिए जलाएगा - अंजुम ख़याली कविता - Darsaal

मिरे मज़ार पे आ कर दिए जलाएगा

मिरे मज़ार पे आ कर दिए जलाएगा

वो मेरे ब'अद मिरी ज़िंदगी में आएगा

यहाँ की बात अलग है जहान-ए-दीगर से

मैं कैसे आऊँगा मुझ को अगर बुलाएगा

मुझे हँसी भी मिरे हाल पर नहीं आती

वो ख़ुद भी रोएगा औरों को भी रुलाएगा

बिछड़ के इस को गए आज तीसरा दिन है

अगर वो आज न आया तो फिर न आएगा

फ़क़ीह-ए-शहर के बारे मेरी राय थी

गुनाहगार है पत्थर नहीं उठाएगा

इसी तरह दर-ओ-दीवार तंग होते रहे

तो कोई अपने लिए घर नहीं बनाएगा

हमारे ब'अद ये दार-ओ-रसन नहीं होंगे

हमारे ब'अद कोई सर नहीं उठाएगा

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