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जाँ क़र्ज़ है सो उतारते हैं - अंजुम ख़याली कविता - Darsaal

जाँ क़र्ज़ है सो उतारते हैं

जाँ क़र्ज़ है सो उतारते हैं

हम उम्र कहाँ गुज़ारते हैं

शामें हैं वही वही हैं सुब्हें

गुज़रे हुए दिन गुज़ारते हैं

इस नाम का कोई भी नहीं है

जिस नाम से हम पुकारते हैं

गिनते हैं तमाम रात तारे

हम रात यूँही गुज़ारते हैं

पिचके हुए गाल ज़र्द चेहरे

जज़्बात बहुत उभारते हैं

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