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सितमगरों से डरूँ चुप रहूँ निबाह करूँ - अंजुम ख़लीक़ कविता - Darsaal

सितमगरों से डरूँ चुप रहूँ निबाह करूँ

सितमगरों से डरूँ चुप रहूँ निबाह करूँ

ख़ुदा वो वक़्त न लाए मैं ये गुनाह करूँ

मिरी नज़र में अना के शरर सलामत हैं

इन्हें बुझाऊँ तो ताज़ीम कम-निगाह करूँ

मिरी ज़बाँ को सलीक़ा नहीं गुज़ारिश का

मैं अपने हक़ से ज़ियादा न कोई चाह करूँ

पहाड़ मेरे तहव्वुर का इस्तिआ'रा है

मैं पस्तियों से भला कैसे रस्म-ओ-राह करूँ

मसाफ़-ए-जीस्त में मुझ को बस आगही दे दो

हराम है जो तलब फिर कोई सिपाह करूँ

किसी को ख़ौफ़-ए-सलासिल किसी को हिर्स-ए-करम

मैं अपने हक़ में ख़ुदाया किसे गवाह करूँ

सितम तो ये है कि फ़ौज-ए-सितम में भी 'अंजुम'

बस अपने लोग ही देखूँ जिधर निगाह करूँ

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