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पलकों तक आ के अश्क का सैलाब रह गया - अंजुम ख़लीक़ कविता - Darsaal

पलकों तक आ के अश्क का सैलाब रह गया

पलकों तक आ के अश्क का सैलाब रह गया

दरिया दरून-ए-हल्क़ा-ए-गिर्दाब रह गया

ये कौन है कि जिस को उभारे हुए है मौज

वो शख़्स कौन था जो तह-ए-आब रह गया

नख़्ल-ए-अना में ज़ोर-ए-नुमू किस ग़ज़ब का था

ये पेड़ तो ख़िज़ाँ में भी शादाब रह गया

क्या शहर पर खुली ही नहीं आयत-ए-ख़ुलूस

क्या एक मैं ही वाक़िफ़-ए-आदाब रह गया

कुछ ज़िक्र-ए-यार जिस में था कुछ ज़िक्र-ए-वस्ल-ए-यार

तदवीन-ए-ज़िंदगी में वही बाब रह गया

जो शय यहाँ की थी वो यहीं छोड़ दी मगर

आँखों के बीच एक तिरा ख़्वाब रह गया

देखा जो फिर से जानिब-ए-दरिया रवाँ मुझे

बल खा के अपने आप में गिर्दाब रह गया

'अंजुम' तिरी ज़मीन अभी कितनी दूर है

कोसों-परे तो क़रिया-ए-महताब रह गया

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