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जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा - अंजुम ख़लीक़ कविता - Darsaal

जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा

जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा

इस दिल की यूरिशों का तसलसुल न जाएगा

ख़ेमों से ता-फ़ुरात जो दरिया-ए-ख़ूँ है ये

उस पर से मस्लहत का कोई पुल न जाएगा

उस को गुमाँ नहीं था कि अहद-ए-ख़िज़ाँ में भी

ये ज़ौक़-ए-नग़्मा-रेज़ी-ए-बुलबुल न जाएगा

ये अब्र-ए-आगही जो बरसता रहा यूँही

मिट्टी का ये वजूद मिरा घुल न जाएगा

गिरता रहेगा यूँही बलाओं का आबशार

जब तक ग़ुबार-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र धुल न जाएगा

वो शख़्स तो ख़ुदाई के दावे पे तुल गया

इस हद पे हम समझते थे बिल्कुल न जाएगा

बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें

ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा

'अंजुम' निगार-ए-ज़ीस्त को फिर चाहिए वही

इक सर जो ख़्वाहिशों के एवज़ तुल न जाएगा

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