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हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें - अंजुम ख़लीक़ कविता - Darsaal

हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें

हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें

न कोई ज़ाइचा खींचें न इस्तिख़ारा करें

उसी से लफ़्ज़ बने माँ भी एक है जिन में

तो कैसे हर्फ़ की बे-हुरमती गवारा करें

उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा

कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें

शुऊ'र-ए-शे'र ने वो आँख खोल दी दिल में

कि अब तो हम पस-ए-इम्कान भी नज़ारा करें

फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं

ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें

इलाही खोल दे हम पर दर-ए-मदीना-ए-इल्म

अली अली इसी उम्मीद पर पुकारा करें

असा नहीं न सही हम फ़क़ीर लोग मगर

हों मौज में तो तलातुम को ही किनारा करें

ख़ुदा का शुक्र है सब ज़र-पसंद जाह-तलब

हमारी सोहबत-ए-बे-फ़ैज़ से किनारा करें

मिले जो वक़्त तो 'अंजुम' ब-सूरत-ए-दीवान

मुरत्तब अपनी रियाज़त का गोश्वारा करें

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