यक-ब-यक जाँ से गुज़रना तो है आसाँ 'अंजुम'
क़तरा क़तरा कई क़िस्तों में पिघल कर देखें
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मिरी नज़र में आ गया है जब से इक सहीफ़ा-रुख़
अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र
जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं
याद है क़िस्सा-ए-ग़म का मुझे हर लफ़्ज़ अभी
आबादियों में कैसे दरिंदे घुस आए हैं
कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद
इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह
ख़ुद-कुशी का अलमिया
क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
सर-ए-राह मिल के बिछड़ गए था बस एक पल का वो हादसा
रक़्स-ए-जुनूँ की गर्मी-ए-तासीर देखना