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फ़सील-ए-जिस्म पे शब-ख़ूँ शरारतें तेरी - अंजुम इरफ़ानी कविता - Darsaal

फ़सील-ए-जिस्म पे शब-ख़ूँ शरारतें तेरी

फ़सील-ए-जिस्म पे शब-ख़ूँ शरारतें तेरी

ज़रा सी भी नहीं बदली हैं आदतें तेरी

ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और लहू लहू ये ख़्वाब

किताब-ए-जिस्म पे उतरी हैं आयतें तेरी

हिसार-ए-आतिश-ए-नमरूद में घिरा हूँ मैं

अब इतनी सुस्त क़दम क्यूँ हैं रहमतें तेरी

चराग़ चाँद शफ़क़ शाम फूल झील सबा

चुराईं सब ने ही कुछ कुछ शबाहतें तेरी

ये मौज मौज लहू में तिरे बदन का नशा

तलाश करता है हर लम्हा क़ुर्बतें तेरी

ऐ रश्क-ए-सर्व-ओ-सनोबर-क़दाँ ख़िराम-ए-नाज़

कि राह देख रही हैं क़यामतें तेरी

मिरी हवस के समुंदर में मद्द-ओ-जज़्र नहीं

पए-ज़वाल न हों चाँद-चाहतें तेरी

उखड़ने वाली थी जिस दम तनाब साँसों की

दर आईं ख़ेमा-ए-दिल में बशारतें तेरी

इसे सँभाल, हुआ जा रहा है ज़ेर-ओ-ज़बर

कि दिल पे लाई हुई सब हैं आफ़तें तेरी

अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र

मैं किस ज़बाँ से करूँगा शिकायतें तेरी

वो आँखों आँखों में रातों का काटना तेरा

वो बातों बातों में 'अंजुम' इबादतें तेरी

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