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बन गई नाज़ मोहब्बत तलब-ए-नाज़ के बा'द - अंजुम फ़ौक़ी बदायूनी कविता - Darsaal

बन गई नाज़ मोहब्बत तलब-ए-नाज़ के बा'द

बन गई नाज़ मोहब्बत तलब-ए-नाज़ के बा'द

और भी ऐसे कई राज़ हैं इस राज़ के बा'द

क़द्र क्या सोज़-ए-तजल्ली की सहर साज़ के बा'द

ठहर सकती नहीं शबनम मिरी पर्वाज़ के बा'द

अपनी मंज़िल तो बना लेते हैं दुनिया वाले

मैं कहाँ जाऊँ तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ के बा'द

मैं ही दुनिया की सदा बन के नहीं हूँ ख़ामोश

ख़ुद भी चुप हो गई दुनिया मिरी आवाज़ के बा'द

लोग आग़ाज़ से करते हैं तलाश-ए-अंजाम

मैं ने अंजाम न सोचा कभी आग़ाज़ के बा'द

मैं गुनहगार-ए-नशेमन हूँ न पाबंद-ए-क़फ़स

फ़ितरतन कुछ तो सुकूँ चाहिए पर्वाज़ के बा'द

इस मोहब्बत में है तौहीन-ए-मोहब्बत 'अंजुम'

वो अगर मुझ को पुकारें मिरी आवाज़ के बा'द

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