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ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को - अंजुम बाराबंकवी कविता - Darsaal

ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को

ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को

कुछ मुनाफ़िक़ भी बताते हैं मुनाफ़िक़ मुझ को

दिन चढ़े धूप की बातें नहीं सुनता कोई

चाँदनी-रात पुकारे तिरा आशिक़ मुझ को

कश्तियाँ रेशमी ख़्वाबों की जला कर जाना

किस की चाहत ने बना रक्खा है 'तारिक़' मुझ को

आप के नाम पे मैं हद में रहा हूँ लेकिन

आप के नाम पे दुनिया ने किया दिक़ मुझ को

मैं ने सूरज की तरह ख़ुद को बनाया जिस दिन

देखने आएँगे ये मग़रिब-ओ-मशरिक़ मुझ को

आप कहते तो ज़रा दिल को तसल्ली होती

कहने वालों ने कहा आशिक़-ए-सादिक़ मुझ को

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