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ना-उमीदी कुफ़्र है - अंजुम आज़मी कविता - Darsaal

ना-उमीदी कुफ़्र है

तुम जो मग़रिब की जुगाली से कभी थकते नहीं

तुम को क्या मालूम है तख़्लीक़ का जौहर कहाँ

फ़लसफ़ी बनते हो अपने आप से पूछो कभी

खो गया है रूह का गौहर कहाँ

तुम दिल-ओ-जाँ से मशरिक़ की परस्तारी करो

क्या बरहमन के सिवा कुछ और हो

क्या किसी की मश्रिक-ओ-मग़रिब में दिलदारी हुई

भूक से बेहाल हैं जो उन की ग़म-ख़्वारी हुई

अद्ल की मीज़ान जब टूटी पड़ी हो दरमियाँ

ज़िंदगी सारी की सारी ही रिया-कारी हुई

मग़रिब-ओ-मशरिक़ की सारी बहस में तुम ना-उमीदी के सिवा क्या दे सके

ना-उमीदी कुफ़्र है

कुफ़्र से बचते भी और कुफ़्र ही करते हो तुम

तुम तो माज़ी हाल ओ मुस्तक़बिल के भी क़ाइल नहीं

दिल कहे कुछ भी मगर तुम इस तरफ़ माइल नहीं

वो जो मुतलक़ है तुम्हारे वास्ते सारे ज़माने दे गया

तुम बताओ तुम ने अब तक क्या किया

ना-उमीदी कुफ़्र है कुफ़्र ही करते हो तुम

दिल में गर रौशन हो उस दिन की उम्मीद

जुस्तुजू तुम को जब अपने आप से मिलवाएगी

ज़िंदगी करने को प्यारे शश-जिहत खुल जाएगी

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