हम से क्या ख़ाक के ज़र्रों ही से पूछा होता
हम से क्या ख़ाक के ज़र्रों ही से पूछा होता
ज़िंदगी एक तमाशा है तो देखा होता
देखते गर हमीं आलम को ब-अंदाज़-ए-दिगर
और ही दश्त-ए-जुनूँ में दिल-ए-रुस्वा होता
क्या किया अहल-ए-मोहब्बत ने मगर तेरे लिए
हम ने इक सहन-ए-चमन और भी ढूँडा होता
तुम भी होते मय-ओ-नग़्मा भी दिल-ए-शैदा भी
और ऐसे में अगर अब्र बरसता होता
हंस के इक जाम पिलाता कोई दीवाने को
प्यार तो होता मगर काहे को सौदा होता
तज़्किरे होते रहे चाक गरेबानों के
हाँ तिरी बज़्म-ए-तरब में कोई ऐसा होता
तिश्ना-लब कौन है गो जाम न आया हम तक
दौर इक और चला ख़ून-ए-जिगर क्या होता
ख़ाक ने कितने बद-अतवार किए हैं पैदा
ये न होते तो उसी ख़ाक से क्या क्या होता
इस से मिलना ही ग़ज़ब हो गया वर्ना 'अंजुम'
दर-ब-दर फिरने का झगड़ा भी न उट्ठा होता
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