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एक सौदा है लज़्ज़त-ए-ग़म है - अंजुम आज़मी कविता - Darsaal

एक सौदा है लज़्ज़त-ए-ग़म है

एक सौदा है लज़्ज़त-ए-ग़म है

आज फिर मेरी आँख पुर-नम है

दिल को बहला रहे हैं मुद्दत से

ज़िंदगी क्या अज़ाब से कम है

ज़र्रा ज़र्रा उदास है उस का

मेरे घर का अजीब आलम है

मेहर-ओ-मह पर कमंद पड़ती है

सोच में कोई इब्न-ए-आदम है

तुझ से पर्दा नहीं मिरे ग़म का

तू मिरी ज़िंदगी का महरम है

ये जो इक ए'तिबार है तुम पर

किस क़दर पाएदार-ओ-मुहकम है

कल तो दुनिया बदल ही जाएगी

आज उन का ये जौर-ए-पैहम है

दिल न का'बा है ने कलीसा है

तेरा घर है हरीम-ए-मरियम है

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