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अनजाने ख़्वाब की ख़ातिर क्यूँ चैन गँवाया - अंजुम अंसारी कविता - Darsaal

अनजाने ख़्वाब की ख़ातिर क्यूँ चैन गँवाया

अनजाने ख़्वाब की ख़ातिर क्यूँ चैन गँवाया

कब वक़्त का पंछी ठेरा कब साया हाथ में आया

इक नूर की चादर सिमटी बे-जान फ़ज़ा धुँदलाई

घर आए घनेरे बादल या चाँद गहन में आया

आँखों से नशीली शब की धोती रही शबनम काजल

हर सम्त स्याही फैली हर सम्त अँधेरा छाया

जो बात लबों पर आई वो बात बनी अफ़्साना

इक गीत को इस दुनिया ने कितनी ही धुनों में गाया

दिल दर्द से भर भर आया पलकों पे न चमके आँसू

आँखों ने समुंदर भर के क़तरे के लिए तरसाया

ऐसे भी ज़माने गुज़रे दिन सोया रातें जागीं

एहसास का रंगीं आँचल सन्नाटों में लहराया

ख़ुशियों को तो छोड़ा हम ने इक खेल समझ कर 'अंजुम'

जिस ग़म को रग-ए-जाँ समझा उस ग़म ने हमें ठुकराया

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