उस बुत को ज़रा छू के तो देखें कि वो क्या है

उस बुत को ज़रा छू के तो देखें कि वो क्या है

पत्थर है कि इक मोम के साँचे में ढला है

उस ने मुझे अपना कभी समझा नहीं लेकिन

जिस सम्त गया हूँ वो मिरे साथ रहा है

जंगल है दरिंदों का कोई साथ नहीं है

किस जुर्म की पादाश में बन-बास मिला है

तुझ पर भी हर इक सम्त से पथराव हुआ है

मुझ पर भी हर इक सम्त से पथराव हुआ है

मुझ को तिरी आवाज़ का साया ही बहुत है

ये बहस है बे-कार कि तू मुझ से जुदा है

चेहरे जो हैं कश्कोल हैं अज्साम खंडर हैं

हर शख़्स यहाँ वक़्त का आईना बना है

हर हाथ में है ज्ञान की पुस्तक मगर 'अंजुम'

इस दौर का इंसान भी बू-जहल रहा है

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