रोज़ अख़बार में छप जाने से मिलता क्या है

रोज़ अख़बार में छप जाने से मिलता क्या है

अपनी तश्हीर के अफ़्साने में रक्खा क्या है

तुम ने जिस को ग़म-ए-अय्याम कहा है यारो

वो मिरे दर्द का हिस्सा है तुम्हारा क्या है

झुन-झुने दे के मिरे हाथ में कोई मुझ को

क़ैद-ए-हस्ती की सज़ा दे ये तमाशा क्या है

कल तलक जो मिरी तारीफ़ किया करता था

आज वो भी मिरा दुश्मन है ये क़िस्सा क्या है

हम अगर डूब भी जाएँ तो उभर सकते हैं

हम को मालूम है जीने का सलीक़ा क्या है

हम ने सौग़ात समझ कर तो उसे अपनाया

अब ये क्यूँ सोचें कि इस ग़म का मुदावा क्या है

यूँ तो सब लोग तुम्हें जानते होंगे 'अंजुम'

और कोई भी न जाने तो बिगड़ता क्या है

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