उन से इज़हार-ए-मुद्दआ न किया
क्या किया मैं ने हाए क्या न किया
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मूसा नहीं कि ताब न लाऊँ मैं हुस्न की
मुसलमाँ ग़ौर कर क्यूँ आज तेरी
वो ग़ुंचा हूँ जो बिन खिले मुरझाए चमन में
दयार-ए-इश्क़ में तन्हा रहा नहीं हरगिज़
ऐ दो-जहाँ के मालिक आ'ला है नाम तेरा
क्या बर्बाद जिन को वो तमन्नाएँ तुम्हारी थीं
जो ज़ौक़-ए-नज़र हो तो तुर्की में आ कर
बहाए शबनम ने अश्क पैहम नसीम भरती है सर्द आहें
परवरदिगार दे मुझे ग़ैरत-शिआ'र आँख
जाते ही उन के ज़ीस्त की सूरत बदल गई