इस पे हैराँ हैं ख़रीदार कि क़ीमत है बहुत
मेरे गौहर की तब-ओ-ताब नहीं देखते हैं
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कब इश्क़ में यारों की पज़ीराई हुई है
क्यूँ नहीं होते मुनाजातों के मअनी मुन्कशिफ़
देखा है किसी आहू-ए-ख़ुश-चश्म को उस ने
ये ख़ाना हमेशा से वीरान है
म'अरका जब छिड़ गया तो क्या हुआ हम से सुनो
इसी ज़मीं पे इसी आसमाँ में रहना है
न मेरे हाथ से छुटना है मेरे नेज़े को
उस की मुट्ठी में जवाहिर थे नज़र मेरी तरफ़
हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा
रू-ए-गुल चेहरा-ए-महताब नहीं देखते हैं