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इसी ज़मीं पे इसी आसमाँ में रहना है - अनीस अशफ़ाक़ कविता - Darsaal

इसी ज़मीं पे इसी आसमाँ में रहना है

इसी ज़मीं पे इसी आसमाँ में रहना है

तिरा असीर हूँ तेरे जहाँ में रहना है

मैं एक पल तिरी दुनिया में क्या क़याम करूँ

कि उम्र भर तो मुझे रफ़्तगाँ में रहना है

में जानता हूँ बहुत सख़्त धूप है लेकिन

सफ़र में हूँ तो सफ़-ए-रह-रवाँ में रहना है

उतर गई है तो सीने से मत निकाल उसे

कि मेरे ख़ून को तेरी सिनाँ में रहना है

न मेरे हाथ से छुटना है मेरे नेज़े को

न तेरे तीर को तेरी कमाँ में रहना है

खुले रहें जो खुले हैं क़फ़स के दरवाज़े

वो कब छुटेंगे जिन्हें क़ैद-ए-जाँ में रहना है

तो फिर ये ज़िंदगी-ए-जावेदाँ का मिलना क्या

जो हर नफ़्स नफ़्स-ए-राएगाँ में रहना है

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