हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा
हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा
रहा भी तो क्या इस जहाँ में रहा
न मैं दूर तक साथ उस के गया
न वो देर तक हमरहाँ में रहा
वो दरिया पे मुझ को बुलाता रहा
मगर मैं सफ़-ए-तिश्नगाँ में रहा
मैं बुझने लगा तो बहुत देर तक
उजाला चराग़-ए-ज़ियाँ में रहा
क़फ़स याद आया परिंदे को फिर
बहुत रोज़ तक आशियाँ में रहा
रही देर तक मौत से गुफ़्तुगू
मैं जब हल्क़ा-ए-रफ़्तगाँ में रहा
न गुल कोई दिल के शजर पर खिला
न कोई समर शाख़-ए-जाँ में रहा
ये ख़ाना हमेशा से वीरान है
कहाँ कोई दिल के मकाँ में रहा
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