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हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा - अनीस अशफ़ाक़ कविता - Darsaal

हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा

हमेशा किसी इम्तिहाँ में रहा

रहा भी तो क्या इस जहाँ में रहा

न मैं दूर तक साथ उस के गया

न वो देर तक हमरहाँ में रहा

वो दरिया पे मुझ को बुलाता रहा

मगर मैं सफ़-ए-तिश्नगाँ में रहा

मैं बुझने लगा तो बहुत देर तक

उजाला चराग़-ए-ज़ियाँ में रहा

क़फ़स याद आया परिंदे को फिर

बहुत रोज़ तक आशियाँ में रहा

रही देर तक मौत से गुफ़्तुगू

मैं जब हल्क़ा-ए-रफ़्तगाँ में रहा

न गुल कोई दिल के शजर पर खिला

न कोई समर शाख़-ए-जाँ में रहा

ये ख़ाना हमेशा से वीरान है

कहाँ कोई दिल के मकाँ में रहा

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