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नाम तेरा भी रहेगा न सितमगर बाक़ी - अनीस अंसारी कविता - Darsaal

नाम तेरा भी रहेगा न सितमगर बाक़ी

नाम तेरा भी रहेगा न सितमगर बाक़ी

जब है फ़िरऔन न चंगेज़ का लश्कर बाक़ी

अपने चेहरों को सियाही में छुपाने वालो

नोक-ए-नेज़ा पे है सूरज सा कोई सर बाक़ी

तेरे विर्से पे हैं ग़ासिब की उक़ाबी नज़रें

ग़फ़लतों से नहीं रहते ये जवाहर बाक़ी

इक सदफ़ सत्ह-ए-समंदर पे बहा जाता है

और साहिल पे नहीं एक शनावर बाक़ी

एक सफ़ हों तो बनें सीसा पिलाई दीवार

हों अदू के लिए राहें न कहीं दर बाक़ी

क़द्र कम होती है तक़्सीम जो होता है अदू

हासिल-ए-जम्अ में बरकत है बराबर बाक़ी

जाल फिर लाया है सय्याद फँसाने के लिए

मिल के उड़ जाएँ परिंदे न रहे डर बाक़ी

ज़ुल्म से सर को न टकराएँ तो फिर सज्दा करें

हाँ पता है कि दर होगा न कहीं सर बाक़ी

हम शहीदों को कभी मुर्दा नहीं कहते 'अनीस'

रिज़्क़ जन्नत में मिले शान यहाँ पर बाक़ी

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